Sunday, March 3, 2013

एक दिन की बारात कु हाल



प्रिय मित्रो, सादर नमस्कार,
प्रस्तुत हास्य कविता मैंने उत्तरांचल में आज कल प्रचलित एक दिवसीय विवाह के होने के बारे में लिखी है
एक बार दगडियो
मैके भी दिन दिन की बारात माँ जाणा कु मौका मिली
चल दगडियो का संग मन प्रसन्न मुखुडी को रंग तब खिली

झटपट हवे गे वरनारायण तैयार
पैरी वें सूट बूट आर टांगी कमर माँ तलवार

सड़की माँ गाड़ी थाई खड़ी मारनी छाई होरण
ढोल दमौं मसकबिन संग बाजणा था रणसिंघा-तोरण

बारात पहुची सड़की माँ सबुन अपनी सीट खुजाई
वरनारायण कु मामा आर दही की परोठी घर छुटी गयाई
चली ग्ये बारात डांडी-कंठियो माँ होण च गाड़ी कु सुन्स्याट
सभी पौणा बन्या चन दारू माँ रंग मस्त करना चन खिक्लीयाट

बारात ज़रा रुकी बीच बाजार 
दरौल्या पहुची ठेका माँ रुपया लेकी हजार
चल पड़ी गाड़ी कुई छुटी गे होटल माँ कुई छुटी धार पोर
दरोलिया दिदो कु त छोऊ बस बोतली पर शोर

बारात पहुची चौक माँ होण लगी गे स्वागत
कुई बैठी कुर्शी माँ कुई बैठी दरी माँ अर कुई बैठी छत
जवान छोरा खोजना छन, गलेर नौनी कुजणी कख हर्ची गे
बोलना छन की अब नि राये वू रंगत जू पैली छाई

बैठी पौणा पंगत माँ खाई उन काचू भात
दाल माँ लोण भिन्डी ह्व्वे गे अब बोन क्या बात

कखी नि मिली पानी कखी नि मिली सौंफ-मिश्री
हे हिमाला की हव्वे यु हम सब संस्कार बिसरी

बामण दीदा न पढ़ी सटासट अपना मंत्र
ब्यौला का कंदुड़ माँ वैन बोली तब यन्त्र

फेरा फेरी सरासर ब्यौली च रेस लगाणी
ब्यौला दीदा पिछने रेगे, ब्यौली नी छौंपी जाणी

पैटी बारात ब्यौली अब नी जयादा रोंदी दिखेंदी
डोला माँ बैठी जे ब्यौली बव्वे बुबा सबी मनौंदी

यन राइ दिदो मेरु एक दिनी की बारात कु हाल
सब कुछ सरासर हौंदु यख यनु बणी गे कुमॉऊ-गढ़वाल

रचियेता: विजय सिंह बुटोला
दिनांक 16-10-2008

मैत की याद



मन च आज मेरु बोलंण लग्युं जा 
घर बौडी जा तौं रौत्याली डंडी कांठियों मा 
मेरु मुलुक जग्वाल करणु होलू 
कुजणी कब मैं वख जौलू कब तक मन कें मनौलू
अपणा प्राणों से भी प्रिय छ हम्कैं ई धारा 
किलै छोड़ी हमुन वु धरती किलै दिनी बिसरा 
इं मिट्टी माँ लीनी जन्म यखी पाई हमुन जवानी 
खाई-पीनी खेली मेली जख करी दे हमुन वु विराणी
हमारा लोई में अभी भी च बसी सुगंध इं मिट्टी की 
छ हमारी पछाण यखी न मन माँ राणी चैन्दि सबुकी 
देखुदु छौं मैं जब बांजा पुंगडा ढल्दा कुडा अर मकान 
खाड़ जम्युं छ चौक माँ, कन बनी ग्ये हम सब अंजान
याद ओउन्दी अब मैकि अब वु पुराणा गुजरया दिन 
कन रंदी छाई चैल पैल हर्ची ग्यैन वु अब कखि नी छिंन

याद बौत औंदन वू प्यारा दिन जब होदू थौं

काली चाय मा गुडु कु ठुंगार 
पूषा का मैना चुला मा बांजा का अंगार 
कोदा की रोटी पयाजा कु साग 
बोडा कु हुक्का अर तार वाली साज
चैता का काफल भादों की मुंगरी 
जेठा की रोपणी अर टिहरी की सिंगोरी 
पुषों कु घाम अषाढ़ मा पाक्या आम 
हिमाला कु हिंवाल जख छन पवित्र चार धाम
असुज का मैना की धन की कटाई 
बैसाख का मैना पूंगाडो मा जुताई 
बल्दू का खंकार गौडियो कु राम्णु 
घट मा जैकर रात भरी जगाणु
डाँडो मा बाँझ-बुरांश अर गाडियों घुन्ग्याट
डाँडियों कु बथऔं गाड--गदरो कु सुन्सेयाट 
सौंण भादो की बरखा, बस्काल की कुरेडी 
घी-दूध की परोठी अर छांच की परेडी
हिमालय का हिवाँल कतिकै की बगवाल
भैजी छ कश्मीर का बॉर्डर बौजी रंदी जग्वाल 
चैता का मैना का कौथिग और मेला 
बेडू- तिम्लौ कु चोप अर टेंटी कु मेला
ब्योऊ मा कु हुडदंग दगड़यो कु संग 
मस्क्बजा की बीन दगडा मा रणसिंग 
दासा कु ढोल दमइया कु दमोऊ 
कन भालू लगदु मेरु रंगीलो गढ़वाल-छबीलो कुमोऊ
बुलाणी च डांडी कांठी मन मा उठी ग्ये उलार
आवा अपणु मुलुक छ बुलौणु हवे जावा तुम भी तैयार

रचियेता: विजय सिंह बुटोला
25-10-2008

मेरी जन्मभूमि





है जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान 
हम करे न्योछावर इसपर तन ,मन और प्राण 
इसके आस्तित्व से ही है हमारी पहचान 
बढे मिलकर हम यही हो बस मन में अरमान

हो संगठित और समर्पित इसे संवारे 
निस्वार्थभावः कर्म कर इसे निखारे 
चिर-यौवना रहे सदा ये धारा ऐसा कुछ विचारे 
हमारी यह धारा हमे निस दिन यही पुकारे

हे जन्मभूमि तुझे हम सर्वस्व अर्पण करे 
अभिलाषा है हमारी सर्व कर्म समर्पण करे 
है हमारे रक्त मे समाहित तेरी ही महक 
तेरे लिए कर्म करू ,कम है जो प्राण भी तरु

इस धारा के प्रताप पाई हमने जग मे पहचान 
निष्काम भाव से कर्म कर दे हम अपना योगदान 
इसकी माटी मे जन्मे बना हमारा आधार 
बिसराये इस धारा को यही है समय की पुकार

दूसरा ब्यो कु विचार (गढ़वाली हास्य कविता )





एक दिन दगडियो आई मेरा मन माँ एक भयंकर विचार
की बणी जौँ मैं फिर सी ब्योला अर फिर सी साजो मेरी तिबार
ब्योली हो मेरी छड़छड़ी बान्द जून सी मुखडी माँ साज सिंगार
बीती ग्येन ब्यो का आठ बरस जगणा छ फिर उमंग और उलार


पैली बैठी थोऊ मैं पालंकी पर अब बैठण घोड़ी पकड़ी मूठ
तब पैरी थोऊ मैन पिंग्लू धोती कुरता अब की बार सूट बूट
बामण रखण जवान दगडा ,बूढया रखण घर माँ
दरोलिया रखण काबू माँ न करू जू दारू की हथ्या-लूट


मैन यु सोच्यु च पैली धरी च बंधी कै गिडाक
खोळी माँ रुपया दयाणा हजार नि खापौंण दिमाक
फेरो का बगत अडूनु मैन मांगण गुन्ठी तोलै ढाई
पर डरणु छौं जमाना का हाल देखि नहो कखी हो पिटाई

पैली होई द्वार बाटू ,बहुत ह्वै थोऊ टैम कु घाटू
गौं भरी माँ घूमी कें औंण, पुरु कन द्वार बाटू
रात भर लगलू मंड़ाण तब खूब झका-झोर कु
चतरू दीदा फिर होलू रंगमत घोड़ा रम पीलू जू


तब जौला दुइया जणा घूमणा कें मंसूरी का पहाडू माँ
दुइया घुमला खूब बर्फ माँ ठण्ड लागु चाई जिबाडू माँ


ब्यो कु यन बिचार जब मैन अपनी जनानी थैं सुणाई
टीपी वीँन झाडू -मुंगरा दौड़ी पिछने-२ जख मैं जाई
कन शौक चढी त्वै बुढया पर जरा शर्म नि आई
अजौं भी त्वैन जुकुडी माँ ब्यो की आग च 
लगांई
नि देख दिन माँ सुप्नाया, बोलाणी च जनानी
दस बच्चो कु बुबा ह्वै गे कन ह्वै तेरी निखाणी
मैं ही छौं तेरी छड़छड़ी बान्द देख मैं पर तांणी
अपनी जनानी दगडा माँ किले छ नजर घुमाणी


तब खुल्या मेरा आँखा-कंदुड़ खाई मैन कसम
तेरा दगडी रौलू सदानी बार बार जनम जनम


रचनाकर :- विजय सिंह बुटोला
दिनांक :- 15-12-2008

ऐ इंसान जरा तू ठहर




ऐ इंसान जरा तू ठहर
जीवन कि इस दैनिक भागदौड़ में
इंसान का अपना वजूद खो गया है आशाओ के भंवर में
सब कुछ पा लेने कि चाहत में मशगुल है इस तरह
न चाहते हुए भी भूल गया है ख़ुद को खोजता है दुसरो के अक्स में


दिन भर व्यस्त रहकर मग्न है अपने काम में
फुरसत नही है दो जून लेने कि सुबह हो या शाम में
सपनों का संसार बुना है उसने अपने मन के ताने-बने में
जाने कब होंगे पूरे सपने उसके बात होती है हर अफसाने में


बेसुध इंसान पा लेना चाहता है हर उस मुकाम को
बाकि सब कुछ याद है भूल गया है बस आराम को
इस भागदौड़ में हर कोई इस कदर आगे पहुचना चाहता है
पाने को अपनी मंजिल कोई खून तो कोई पसीना बहाता है


न जाने कब मिटेगी इंसान कि ये तृष्णा और पिपासा
सच आता है जब सम्मुख रह जाता है फिर भी प्यासा


क्या लाया था इस जग में न दौड़ इस कदर
कर कर्म होगा सब मनचाहा ऐ इंसान जरा तू ठहर ....जरा तू ठहर

जन्मभूमि रही पुकार



जन्मभूमि हमें हमारी है रही पुकार, कर रही चीत्कार 
सूने पड़े है चहूँ खेत-खलिहान खली है गौं-गुठियार

हैं निर्जन वो गलियाँ जंहा पथिको को थी कभी भरमार
राहें जाग रही है बाट जोहे है उन्हें पदचिन्हों का इंतजार 

गिने चुने जन ही शेष है सन्नाटा पसरा हुआ है चहूँ और 
ताक रही है धरती ऐसे मानो की जैसे रुग्ण व्यक्ति ताके भोर 

अविरल बहते नदी-नाले भी मुड़ गए अनजान राहों पर 
जंगल-पहाड़ भी मौन खड़े है आँखे उनकी भी हैं तर 

खेतों-खलिहानों में भी अब बाँझपन कर चूका है घर 
ये इनके वक्षो पर नमी नहीं है ये अशरुओ से तर-तर
 
फूलो ने भी महकना छोड़ा साथ ही फलों के वृक्ष भी हुए बाँझ 
ये धरती भी करती है प्रतीक्षा तुम्हारे आने की प्रात: हो या साँझ 

घुघूती भी अब नहीं बासती आम की डालियों पर 
कलरव छोड़ा चिडियों ने जैसे ग्रहण लगा हो इस धरा पर
 
जंगल और पहाड़ की आँखे लगी है उन राहों पर 
घसेरियां जहा खुदेड़ गीत लगा याद करती थी अपना प्रियवर 

चैत महीने के कोथिगो व् मेलों की न रही वो पहिचान 
धुल-धूसरित हुई संस्कृति खो गया कही लोककला का मान 

काफल-बुरांस के पेड़ अब लाली नहीं फैलाते नहीं हो रहे प्रतीत 
सोचो तो जरा कभी क्योँ बिसराया हमने पहाड़ क्यों छोड़ी वो प्रीत
 
हे शैलपुत्रो बुला रही है ये धरती तुम्हे आओ करो इसका पुन: श्रंगार 
चार दिन के इस जीवन में कभी तो समय निकालो दो इसको अपना प्यार 

ये जन्मभूमि हमारी माता है इसका हमसे अटूट नाता है 
बिसर गए हैं हम इसको ये कैसी लीला विधाता है 

आओ लौट चले इसकी जीवनदायिनी गोद में 
यही तो हमारी माता है