Sunday, March 3, 2013

जन्मभूमि रही पुकार



जन्मभूमि हमें हमारी है रही पुकार, कर रही चीत्कार 
सूने पड़े है चहूँ खेत-खलिहान खली है गौं-गुठियार

हैं निर्जन वो गलियाँ जंहा पथिको को थी कभी भरमार
राहें जाग रही है बाट जोहे है उन्हें पदचिन्हों का इंतजार 

गिने चुने जन ही शेष है सन्नाटा पसरा हुआ है चहूँ और 
ताक रही है धरती ऐसे मानो की जैसे रुग्ण व्यक्ति ताके भोर 

अविरल बहते नदी-नाले भी मुड़ गए अनजान राहों पर 
जंगल-पहाड़ भी मौन खड़े है आँखे उनकी भी हैं तर 

खेतों-खलिहानों में भी अब बाँझपन कर चूका है घर 
ये इनके वक्षो पर नमी नहीं है ये अशरुओ से तर-तर
 
फूलो ने भी महकना छोड़ा साथ ही फलों के वृक्ष भी हुए बाँझ 
ये धरती भी करती है प्रतीक्षा तुम्हारे आने की प्रात: हो या साँझ 

घुघूती भी अब नहीं बासती आम की डालियों पर 
कलरव छोड़ा चिडियों ने जैसे ग्रहण लगा हो इस धरा पर
 
जंगल और पहाड़ की आँखे लगी है उन राहों पर 
घसेरियां जहा खुदेड़ गीत लगा याद करती थी अपना प्रियवर 

चैत महीने के कोथिगो व् मेलों की न रही वो पहिचान 
धुल-धूसरित हुई संस्कृति खो गया कही लोककला का मान 

काफल-बुरांस के पेड़ अब लाली नहीं फैलाते नहीं हो रहे प्रतीत 
सोचो तो जरा कभी क्योँ बिसराया हमने पहाड़ क्यों छोड़ी वो प्रीत
 
हे शैलपुत्रो बुला रही है ये धरती तुम्हे आओ करो इसका पुन: श्रंगार 
चार दिन के इस जीवन में कभी तो समय निकालो दो इसको अपना प्यार 

ये जन्मभूमि हमारी माता है इसका हमसे अटूट नाता है 
बिसर गए हैं हम इसको ये कैसी लीला विधाता है 

आओ लौट चले इसकी जीवनदायिनी गोद में 
यही तो हमारी माता है 



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